बजरंग विजय चालीसा- समीक्षा एवं पद्य - 1 Ram Bharose Mishra द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

बजरंग विजय चालीसा- समीक्षा एवं पद्य - 1

बजरंग विजय चालीसा- समीक्षा एवं पद्य 1

 

"बजरंग विजय चालीसा" नामक ग्रँथ हनुमानजी की प्रार्थना में  चालीस छन्द और लगभग 8 दोहों व सोरठा में लिखा गया है। इसके रचयिता भगवान दास थे। जिन्होंने अंत मे  ग्रँथ का रचना काल इस दोहै में कहा है-

होरी पूनै भौम संवत उन इस सौ साठ।

चालीशा बजरंग यह पूरण भयो सुपाठ।।

बाद में इसकी प्रतिलिपि तैयार करते समय तिथि और लेखक कवि का उल्लेख किया गया है-

समर विजय बजरंग के कौउ बरन न पावे पार।

कहें दास भगवान किमि अति मतिमन्द गंवार। (दोहा क्रमांक 8)

 

श्रुभग साठ की साल, चैत्र कृष्ण एकादसी।

वणिक धवाकर लाल, लिखी दास भगवान यह।।( चालीसा के अंत का सोरठा)

इस ग्रंथ की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह चालीसा हिंदी के छंद शास्त्र के सबसे कठिन छन्द में से एक किरवान  छन्द  में लिखा गया है , जो वीर रस के ग्रँथों में उपयोग किया जाता था। किरवान छन्द  में चार-चार मात्राओं के चार हिस्से एक पंक्ति में आते हैं। पँक्ति के अंतिम शब्द से हर पंक्ति के अंत  की तुक मिलती है। इस परकार यह दुर्लभ कठिन छन्द है। इसे धुन के साथ बोलना भी जटिल है । इसके अलावा इस पुस्तक में लगभग 11 है दोहै भी लिखे गए हैं । कुछ दोहे प्रार्थना में चालीसा के अंत में लिखे गए हैं। उनको अलग क्रमांक दिया गया है।   संवत 1960 यानी 122 वर्ष पहले इस ग्रंथ की रचना की गई थी। उस समय काव्यशास्त्र में ब्रजभाषा का प्राधान्य था। इस ग्रंथ की भाषा ब्रज है। कुछ शब्द बुंदेली के भी मिल जाते हैं । कवि  किस ग्राम सड़  रहने वाले थे, इसके बारे में ग्रंथ में कोई उल्लेख नहीं है, वे हनुमान जी से प्रार्थ्ना करर्ते हैं कि सड़ गांव मे प्लेग न फैले, वे मूल चंद बुध लाल पर क्रुपा करनेकी भी स्तुति करते हैं  ।  हां, नागरी प्रचारिणी सभा में जो अभिलेख रखा गया है, पूर्व में जो पोथियाँ  गांव गांव में खोजी गई हैं उसमें भगवान दास नाम के कवि हो सकते हैं । अगर ऐसा ज्ञात होता है तो उनके बारे में अलग से नोट लिखा जाएगा ।फिलहाल यह दुर्लभ ग्रंथ हमको खोजने के बाद प्राप्त हुआ है। जिसमें हनुमान जी की स्तुति बहुत ही नए प्रकार से की गई है। मूल कथा गोस्वामी तुलसीदास जी के सुंदरकांड की तरह ही है लेकिन कई जगह अपने नए प्रयोग हैं जैसे लंका जलाते समय हनुमान जी से कुंभकरण की पत्नी का यह कहना कि मेरा पति सो रहा है उसे न जलाइए । लंका को हवन कुंड मानकर एक रूपक भी खड़ा किया है जिसमें पूछ को शुरुआत नर नारी को निशाचारों को समिधा मानकर हनुमान जी द्वारा यज्ञ करना बताया गया है । इस तरह तमाम अलंकारों, तमाम रस इसमे हें। मुख्य तौर पर वीर रस में लिखा गया यह ग्रंथ साहित्यिक मित्रों को भी, साहित्य प्रेमियों को भी अच्छा लगेगा और हनुमान जी के भक्तों को तो यह वरदान की तरह प्रतीत होता है। इस ग्रंथ के छंद भी संलग्न किए जा रहे हैं-

 

 

 

॥ ॥ अथ बजरँग विजय चालीसा लिख्यते॥ ॥

 

दोहा-

 चरण बंद शिवनंद के नाय सरस्वतिहि माथ।

बरनत  हरि गुरु, द्विज कृपा पवन तनय गुण गाथ ॥ 1।

बंद चरण  श्री राम के आयुसु , मुदरी पाय ।।

जामवंत नल-नील अरु अंगद जुट हरखाय ।। 2  ।।

 ढूंढत ढूंढत पवनसुत गए समुद्र के तीर।।

अवधि व्यतीतत शोच बस भे  सब बानरवीर ।।3।

 मिलो तबै संपातकहि लंका बाग अशोक ॥

 रहे सीय हिय राम धर यतन करो तजि शोक ॥४॥

राम काज  लग जन्म तव कहि रिक्षप सुन पौन  ॥

जो नाहीं तुम कर सकत कठिन सु कारण कौन ।।५।।

किरवान छन्द

जामवान की जुवान, सुन अति हरर्षान, भयो मेरु के समान लीन्ह सत्वर उड़ान ।।

कूद  मग आशमान, राम वाण के समान, सिय पद हिय आन, चलो बीर बलवान ।

सुर सुरसा पठाई, देके आसिख सिधाई, छाया मार के गिराई मयनाक छुओ  पान ॥

रामचंद्र जू को दूत, महाबीर मजबूत, भट समर सपूत, बजरंग हनुमान ॥ १॥

 

किरवान

 

जब पोंचे  वह पार, तब मन में विचार, अति लघुरूप धार, कीन्ह गढ़ को पयान ॥

 रोको द्वार ही में जाय, लंका आसुरी ने आय, हनौ नाहि कपिराय, तिहि मागो वरदान।

 देहु मृतक जरांय, दीजे बीर मेरी आय, राम काज कीजे  जाय, बुद्धि वल के निधान ॥

रामचंद्र जू को दूत,  महाबीर  मजबूत, भट समर सपूत बजरंग हनुमान।।(२)

 

 

किरवान

 

पुर बैठ कविराय, दौरे खोर खोर धाय, ढूढो गृह गृह जाय,कछु  शोध न मिलान ॥

 राज भौन जाय फेर, तंह ठौर ठौर हेर, र ही रावणहिं घेर, सुर सुन्दरी महान ॥

देखो ऐसो  जैसौ प्रेत, सोवै चिता पै अचेत, सेवे योगिनी सचेत, भावी सूचक अमान ॥

रामचंद्र जू कौ दूत, महावीर मजबूत, भट समर सपूत बजरंग हनूमान ॥३॥

 

देखो तहाँ एक धाम, जामे लिखो ने  राम राम, तरु वृन्दा  के तमाम, लख  अचरिजु मान।

 तब जागे बुधि धाम, मुख बोले राम नाम, जान सन्त हनुमान, द्विज रूप धरो आन ॥

 मिले ताहि सो निवेद, पायौ  जानकी को भेद, गए वाटिका  निखेद कीन्ह मन अनुमान ॥

रामचंद्र जू कौ दूत, महावीर मजबूत, भट समर सपूत बजरंग हनूमान ॥ ४॥

 

 

 

 

 

तब वाटिका में पैठ, सब संशय को मेंट, कै प्रनाम ही की भेंट, लुके तरु पत्र आन ।।

तँह आयौ दसमाथ, लीने नारि वृन्द साथ, कहै भूमिजा से गाथ, कृपा कीजे महारान ॥

औध मास की बताय, दे तिराश समुझाय, कहो आसुरी बुझाय,डरसे पायदेहु जान ॥

रामचंद्र जू कौ दूत, महावीर मजबूत, भट समर सपूत बजरंग हनूमान ॥५॥

 

तँह त्रिजटा सो आय, कहो राम यश गाय, बात स्वप्न की सुनाय, जातुधानी डरपान।

सेवौ सिय के चरण,हूहै रावण मरण, राजा हूहै विभीषण, कहो सत्य सु जवान ॥

कहे सिय हितमान,मात  आगि काठ आन, दुख जाय छूटे प्रान, प्रीति सत्य कर आन।

रामचंद्र जू कौ दूत, महावीर मजबूत, भट समर सपूत बजरंग हनूमान ॥६॥

 

सो तौ गई उठ भौन,राति मिले आग तौन, दुख जैहै  कर गौन, करौ मन न मलान ।।

कपि मन में बिचार, दीन मुद्रिका   सो डार, ज्यों अशोक ने अँगार, दीनी हित पहचान ॥

जब सीरी लगी हाथ, यह आगि कैसी नाथ, कीन्ह मुद्रिका से गाथ, कैसी आई तज थान ।।

रामचंद्र जू कौ दूत, महावीर मजबूत, भट समर सपूत बजरंग हनूमान।।७।।

 

 

मन होत मो अधीर, जौन लायौ यहि बीर, सो तो प्रगटहि धीर, न तो जात मम प्राण ॥

तब तरु शाख रूम, कपि आय गयौ भूमि, सो प्रणाम भुव चूम, कीन्ह जोर जुग पान ॥

 मैं हों मातु रामदूत, सत्यवानि नहीं धूत, मेरो नाम पौनपूत, परतीत मम मान ।

रामचंद्र जू कौ दूत, महावीर मजबूत, भट समर सपूत बजरंग हनूमान ।।८।।

 

मातु कुशल निकेत, रामलखन समेत, तव दुख ते दुखेत, कहों झूठ न जुबान ॥

जु पै  होती सुधि पाई, झेल करते आई, प्रेम तुमते सिवाय, मातु  धीर हिय आन ।

कपि सैन ले अभीत, मार निशचर जीत, लैहैं तोहि करप्रीत, गायें सुयश पुरान ॥

 रामचंद्र को दूत, महावीर मजबूत, भट समर सपूत, बजरंग हनुमान ॥ ९॥

 

कपि तोहि सम मीत, भट अति रणजीत, मोहि होत न प्रतीत, करै कैसे घममान ॥

धर शैल समरूप, अति विकट अनूप, फेर कर लघु रूप, देख सिय हरर्षान॥

 सुत अमर अजीत, होहु करें प्रभु प्रीति, पायौ सुख सुन नीत, ले असीश बलवान ॥

राम चंद्रजू को दूत. महावीर मजबूत, भट समर सपूत, बजरंग हनुमान ।।१०।।